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कहानी- जमी बर्फ (Short Story- Jami Burf)

Hindi Short Story
मुझे ऐसा सोचना बुरा लगता है कि वक़्त बदलने के साथ रिश्तों की गर्माहट कम हो जाए और उसकी जगह ठंडी शिलाएं खड़ी हो जाएं. क्या संवेदनाओं का चुक जाना व्यवहार की बात है? क्या उन बीते पलों को, जो बचपन की मधुर स्मृतियां हैं और जिनसे अपनेपन की सौंधी सुगंध आती है, उन पर ब़र्फ की असंख्य परतें जम जाना बदलते वक़्त की निशानी है?
बड़े होने यानी उम्र बढ़ने के साथ संवेगों की कमी क्यों आ जाती है? क्यों इंसान इतना खुश्क हो जाता है कि चिड़चिड़ापन ही उसकी ज़िंदगी का अहम् हिस्सा बन जाता है. रिश्तों का मर्म समझना इंसान भूल जाता है या समझना नहीं चाहता है या अपनी ही दुनिया में सिमटा घोंघे की तरह सिकुड़ा ऐसा मान लेता है कि ये सब बेकार की बातें हैं, इसीलिए अपने में मस्त रहो. बाहर क्या हो रहा है, उससे उतना ही मतलब रखो, जहां तक अपना स्वार्थ सिद्ध हो. बस, यही ग़लती हो जाती है हमसे, जब हम संवेदनाओं और स्नेह बंधनों को, रक्त से जुड़े नैसर्गिक रिश्तों को ‘औरों’ में वर्गीकृत करने लगते हैं. ब़र्फ तभी जमती है, जब सारी नमी सूख जाती है. जमते-जमते ब़र्फ का ढेर खड़ा हो जाता है, फिर शिलाखंड बनने में क्या देर लगती है. दूसरों के लिए कठोर, छूने पर स्वयं से ज़्यादा दूसरों को कष्ट होता है. वैसे भी अपना दर्द छिपा लेना उन्हें पीड़ित नहीं करता. अपने ही मनोभावों पर नियंत्रण रखने के लिए बाध्य. जमी ब़र्फ के नाम पर इंडिफरेंट से रहते हैं, कहकर पीछा छुड़ा लेते हैं. लेकिन ऐसा करना ठीक है. स्वभाव है, बन गया तो बन गया. इसलिए मन में गहन पीड़ा उठने के बावजूद वह चुप रहती है. जैसा चल रहा है, चलने दे का दृष्टिकोण ही सर्वश्रेष्ठ है. जो थोड़ी देर कभी-कभार मिलते हैं, उसमें गिला-शिकवा कर माहौल ख़राब करने का क्या फ़ायदा? मनःस्थितियां तो सालोंसाल में पुख्ता हो गई हैं. वे क्षणों में तो लचीली नहीं हो पाएंगी. बड़े भइया मेरे जीवन में सदा ही महत्वपूर्ण व्यक्ति रहे हैं. एक आदर्श, एक विश्‍वास व स्नेह सूत्रों के संबल. बचपन में उनके इर्दगिर्द ही मेरी धुरी घूमती थी. हर काम उन्हीं से करवाती, हर प्रश्‍न का उत्तर उनके पास ढूंढ़ती. हम दोनों की उम्र में इतना फासला है कि बहन की बजाय बेटी कहना ज़्यादा ठीक होगा. मेरे बचपन की हर सुखद स्मृति उनके साथ जुड़ी है. अनगिनत छोटी-छोटी बातें, जो किसी को भी इतना अंतराल बीत जाने के बाद भी याद न रहें, वे मुझे आज भी याद हैं. वे भी एक सुखद एहसास की मानिंद. जबकि आज मैं स्वयं एक बच्चे की मां बन चुकी हूं और उनके बच्चे ब्याह के लायक हो गए हैं. बड़े भइया से भेंट भी यदा-कदा ही होती है. सच कहूं, तो स़िर्फ राखी और दीवाली पर ही, जब भेंट करना नितांत आवश्यक होता है. मेरा मन तो बहुत ललकता है, पर फिर पैरों में अनगिनत प्रश्‍न बेड़ियां डाल देते हैं, “उन्हें तुम्हारी फ़िक्र तक नहीं, एक फोन तक नहीं करते. फिर तुम क्यों भागी-भागी उनसे मिलने इतनी दूर जाना चाहती हो. वह कितना आते हैं तुमसे मिलने?” पति का कथन और व्यावहारिक दृष्टिकोण बिल्कुल सही है, पर... पर मैं बड़े भइया के प्रति अपने दिल में छिपी संवेदनाओं को कैसे बताऊं या कैसे छिपाऊं...? मन में तरलता का जो सोता बहता है, वह बड़े भइया के मन जैसा जमा नहीं है- उनके इंडिफरेंट रहने के भाव से चाहे मैं कितनी बार आहत हुई हूं, लेकिन उनके प्रति जो स्नेह है, इज़्ज़त है वह सदा कायम रही है, उसमें रत्तीभर भी फ़र्क़ नहीं आया है. अपने जीवन में अपने पापा से मैं उतना नहीं डरी, जितना कि बड़े भइया से. लेकिन यह डर प्रेम से सराबोर रहनेवाला डर है. उनसे ज़िद, मनुहार और मनमानी करना तो जैसे बचपन में मेरी ही बपौती थी. मेरे लिए उनकी हर बात अंतिम सत्य थी. वास्तविकता तो यह थी कि मैं ही नहीं, पूरा परिवार- मम्मी, पापा, बाकी तीनों भाई-बहन, उनको एक आधार स्तंभ के रूप में देखते. सभी उनकी ज़रूरतों के प्रति सजग रहते, मानो वही कर्णधार हैं. शायद इसीलिए दूसरे भाई के मन में हीनभावना घर गई थी. उसे लगने लगा था कि बड़े भइया का वजूद ही सर्वोपरि है, इसलिए अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए वह नित नई-नई विनाशकारी योजनाएं बनाता. अंत उसकी मौत से हुआ. ख़ैर, यह बहुत बाद की बातें हैं. उससे पहले तो अपने बचपन और बड़े भइया से जुड़ाववाला अध्याय अभी खोलना बाकी है. जीवन के हर अध्याय के कितने पृष्ठ खुले-अधखुले रह जाते हैं. कुछ को बिना पलटे अगले अध्यायों को पढ़ने के लिए भी मजबूर होना पड़ता है. बड़े भइया पढ़ रहे हैं, कोई व्यवधान न डाले, किसी को सोने या प़ढ़ने के लिए जगह मिले न मिले, लेकिन बड़े भइया को एकांत में टेबल लैंप लगाकर पढ़ने की सुविधा ज़रूर उपलब्ध कराई गई थी. उनका प्यारा-सा पीले रंग का टेबल लैंप मेरे लिए सदा कौतुक का विषय रहा. ऊपर-नीचे, घुमा-घुमाकर उसका खोलने-बंद करने का बटन दबाती रहती, पर उनकी अनुपस्थिति में. अपने शांत स्वभाव और पढ़ाई में जुटे रहने के कारण भी वह सबके प्रिय थे. तिस पर सबसे स्नेह और ममता की सारी छांह उन पर तनी हुई थी. पापा अगर दिवाली पर पटाखे कम लाकर देते, तो बड़े भइया अपने जेब ख़र्च से मुझे और पटाखे दिला देते. घूमने की ज़िद करती, तो तुरंत स्कूटर पर बिठा बंगाली मार्केट ले जाते और मेरी पसंदीदा मिठाई छेना मुर्की दिलाते, जिसे तब मैं चना मुर्गी कहा करती थी. अब तो मैं स्वयं ही छेना मुर्की खाना भूल गई हूं. सच भी तो है, मिठाइयों की असंख्य क़िस्मों के बीच उस नन्हीं-सी गोली का अस्तित्व कितनी देर टिका रह सकता है. वक़्त के लंबे गलियारे को पार करते-करते न स़िर्फ मनुष्य के संवेगों में बदलाव आया है, वरन निर्जीव वस्तुओं पर भी इसका प्रभाव पड़ा है. मैं शायद भटकने लगी हूं. बात तो बड़े भइया की हो रही थी. उनकी गोदी में चढ़ना, उन्हें घोड़ा बनाना. उन्हें हर वक़्त कभी रूठकर, तो कभी रो कर परेशान करती रहती थी. आज के संदर्भ में कहें, तो बुली करती रहती थी, फिर भी वे हमेशा मुझे सबकी डांट से बचाते. छोटी होने की वजह से हर कोई मुझ पर रौब जमाने की फिराक़ में रहता. नौकरी के सिलसिले में जब वह बाहर गए, तो मैं उन्हें लंबे-लंबे ख़त लिखती. उनके भेजे नीले-पीले काग़ज़ पर लिखे ख़त आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं- एक धरोहर के रूप में. इसे आप मेरी मूर्खता या पागलपन कहेंगे, पर मेरी मानसिकता ही ऐसी है कि जब मैं संवेगात्मक रूप से किसी से जुड़ती हूं, तो बहुत गहरे तक जुड़ जाती हूं और उसके साथ बीता एक-एक पल मेरी स्मृति का हिस्सा बन जाता है. हालांकि ऐसी स्थितियां बहुत दुखदायी होती हैं, पर मेरे लिए अपने आपको इंडिफरेंट की ब़र्फ से ढकना नामुमकिन है. बड़े भइया, जो नौकरी करने के लिए घर से निकले, तो बाहर के ही हो गए. उनकी अलग-अलग जगह बदली होती रही. फिर विवाह हुआ. गर्मियों की छुट्टियों में वे भाभी व बच्चों के साथ आते. दो-चार दिन रहते और वापस लौट जाते. वो दो-चार दिन भी ससुराल और यहां-वहां लोगों से मिलने में निकल जाते. बड़े भइया धीरे-धीरे बदलते जा रहे थे. उनसे खुलकर बात करने में ख़ासकर ज़िद करने में संकोच होने लगा था. दूरियां बनने लगी थीं. कभी न क्रोधित होनेवाले बड़े भइया ज़रा-ज़रा-सी बात पर झुंझलाने लगे थे. सबको यह एहसास तो हो गया था कि उनका पारिवारिक जीवन सुखद नहीं है. भाभी का झुकाव सदा मायके की ओर रहा. हमसे वे कभी नहीं जुड़ीं. उनका सदा यही प्रयत्न रहा कि बड़े भइया हमसे विमुख हो जाएं और उनके मायकेवालों को प्रमुखता दें. हमारे भेजे पत्र वह भइया को नहीं दिखातीं, यहां तक कि राखी के टीके को भी गायब कर कह देतीं तुम्हारी बहन ने टीका तक नहीं भेजा. अपने घर में सुख-शांति कायम रखने के प्रयास में बड़े भइया उनके सामने झुकते रहे. हालांकि अपने अमीर माता-पिता के घुटनों में बिठाकर जी हुज़ूरी कराने का भाभी का सपना कभी पूरा नहीं हुआ. एक तटस्थता उनके अंदर घिरती गई. जिस व्यक्ति को परिवार का आधार स्तंभ समझा जाता था, वही अगर पुख्ता न निकले, तो क्या स्थिति हो सकती है उनसे जुड़े व्यक्तियों की. रिश्तों में ठहराव आना स्वाभाविक था. मैं बड़े भइया के सम्मुख जाने से डरने लगी. अब बहुत ही कम शब्दों में बात होती है. दोनों बहनें समझातीं, वक़्त के साथ सब बदल जाते हैं. तुम इतना क्यों सोचती हो? पर मुझे ऐसा सोचना बुरा लगता है कि वक़्त बदलने के साथ रिश्तों की गर्माहट कम हो जाए और उसकी जगह ठंडी शिलाएं खड़ी हो जाएं. क्या संवेदनाओं का चुक जाना व्यवहार की बात है? क्या उन बीते पलों को, जो बचपन की मधुर स्मृतियां हैं और जिनसे अपनेपन की सौंधी सुगंध आती है, उन पर ब़र्फ की असंख्य परतें जम जाना बदलते वक़्त की निशानी है? कई बार सोचा कि क्या बड़े भइया कभी अकेले में संवेदनशील क्षणों में रिश्तों की क़िताब को खोलते न होंगे? उनके एहसास बीती बातों को स्मरण कर पुलक नहीं उठते होंगे या वर्तमान ने उनकी भावनाओं को इतना रौंद दिया है कि वे अब सहज हो ही नहीं सकते. क्या इसीलिए अपनी बेटी के प्रति भी इतने लापरवाह हो उठे हैं? ऐसा नहीं है कि वे उसे प्यार नहीं करते हैं, पर इंडिफरेंट रहने के कारण लापरवाही का दृष्टिकोण ज़्यादा लपेटे रहते हैं. मैं सोचती थी बेटी होने के बाद उनके अंदर जमी ब़र्फ पिघल जाएगी और बहनों के प्रति प्रेम जाग उठेगा. प्यार से भरे लबालब सागर में रीतापन. वक़्त और परिस्थितियां क्या इंसान को पत्थर बना देती हैं? कठोरता ही उनका पर्याय बन जाती है? दूसरे भाई की मौत के बाद बड़े भइया की ओर संबल की दृष्टि से उठीं नज़रें और ज़्यादा सशक्त हो गई थीं. सभी का विश्‍वास, हालांकि उस विश्‍वास को चटकते हर कोई देख रहा था. फिर भी माता-पिता हमेशा इस आस में जीते हैं कि उनका बेटा कभी तो उन्हें सहारा देगा. यह सहारा पैसों का हो या बुढ़ापे की लाठी बनने का, ये ज़रूरी नहीं. बस, उन्हें एक ऐसा विश्‍वास चाहिए, जिसके तले बैठ वे अपनी भावनाएं बांट सकें. लेकिन सब कुछ निरर्थक प्रतीत हो रहा था. फिर बड़े भइया का ट्रांसफर हमारे ही शहर में हो गया. वे दिल्ली आए और अपने अलग फ्लैट में बस भी गए. शहरों की दूरियां चाहे कम हो गई थीं, पर दिलों की दूरियां शायद और बढ़ गई थीं. बड़े भइया ने हमारे क़रीब आना भी चाहा, तो भाभी ने अपनी कूटनीति का इस्तेमाल करते हुए इतने पासे फेंके कि वे खून के रिश्तों पर भी शक करने लगे. पर सच्चाई तो यह है कि इन सबके बावजूद मेरा मन उन्हें छूने, उनसे हंसकर बिना झिझक बात करने को करता है. उनके सीने से लगकर सारे अवसादों को बहाने की इच्छा होती है. इकलौती भतीजी के विवाह की चाह बड़ी प्रबल थी, पर बड़े भइया और भाभी की तटस्थता के आगे विवाह की रौनक़ भी बेरौनक़ हो गई थी. हालांकि हम बुआएं फिर भी रस्मों की अदायगी कर रही थीं, पूरी ख़ुशी और ममता के साथ. बार-बार मेरी निगाहें बड़े भइया की ओर उठ जाती थीं. बेटी की विदाई क्या उन्हें बेचैन नहीं करेगी? क्या स़िर्फ वे अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए इधर-उधर दौड़ रहे हैं? कितने लोग, रिश्तेदार आदि कानों में आकर कह जाते, “इकलौती भतीजी है, बुआओं को ख़ूब नेग मिलेगा. आख़िर तुम लोग दे भी तो कितना रही हो. तू तो सबसे छोटी है. अड़कर सारे नेग लेना.” ये सब बातें मेरे लिए मूल्यहीन थीं. लोग न जाने क्यों इन चीज़ों को अहमियत देते हैं और प्यार को ही भूल जाते हैं. बस, बड़े भइया वही दे दें, तो सारी ख़ुशियां मिल जाएंगी. भतीजी की विदाई पर हिचकियां बंध गई थीं मेरी. मेरे ही सामने पैदा हुई, पली-बढ़ी. घर में मैं ही कुंआरी बुआ-जुड़ाव सहज था. “बेटी जा रही है बड़े भइया.” मैं अपने आपको न रोक पाई और उनके सीने से लग गई. “पागल है क्या तू, तमाशा मत कर. ऐसे कोई रोता है.” अनायास ही उनका हाथ मेरे बालों को छूते हुए मेरी पीठ सहलाने लगा. अपने माथे पर उनके स्पर्श के साथ उनकी आंखों में छिपी नमी को मैंने देख लिया. मोटे-मोटे चश्मे के बावजूद स्नेह और दर्द का अपार समुद्र लहराते देखा मैंने. ये तो मेरे ही प्यारे, प्यार से लबालब बड़े भइया हैं. उतर गई थी क्या उनकी इंडिफरेंट रहने की केंचुली? कितना तरस रही थी मैं इस दिन को देखने के लिए. “पापा...” तभी राजकुमारी-सी दुल्हन के जोड़े में दमकती मेरी भतीजी सामने आ खड़ी हुई. विदाई की घड़ी भी कितनी अजीब होती है- नए संसार में प्रवेश करने का सुख और अपना आंगन छोड़ने का दुख- दोनों साथ-साथ होते हैं. बेटी की विदाई पर तो सैलाब उमड़ पड़ता है. अपने-पराए सभी द्रवित हो उठते हैं. बड़े भइया ने पलभर उसे देखा और फिर अचानक हम दोनों को सीने से सटा बड़ी वेग से फूट पड़े, सोता फूट चला था. मैं आंसुओं में भीगते हुए भी ख़ुश थी. गर्माहट और अपनेपन की वही सौंधी ख़ुशबू, जो बचपन से धरोहर बनी मेरे पास सुरक्षित थी, चारों ओर गमकने लगी. ब़र्फ पिघलने लगी थी.
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                सुमन बाजपेयी

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