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कहानी- एक रस्म प्यार की 2 (Story Series- Ek Rasm Pyar Ki 2)
मैं हैरान रह गया था. किस ज़माने में जी रहा है ये परिवार? जैसे-जैसे दिन बीतता गया, मेरी हैरत बढ़ती गई. हर बात पर नियम-क़ानून थे, "नीचे बैठकर खाना न खाओ... .बुधवार को सिर ना धो... चौखट पर ना खड़े हो..." और भी पता नहीं क्या-क्या! भाभी को ख़ुद कई बार उनकी मम्मी ने डांट दिया, "शहर में शादी हो गई, तो फैशन सवार है तुम पे... ना पूरी मांग भरती हो, ना पायल-बिछुआ पहनती हो... ये सब सुहाग की निशानी है..."
अगली सुबह जब मेरी आंखें खुलीं, तो बहुत-सी आवाज़ें मेरे इर्दगिर्द मौजूद थीं. मेरे कमरे के ठीक बाहर बैठी बहुत सारी औरतें मट्ठा बिलो रही थीं और किसी बात पर फुसफुसाते हुए अचानक ज़ोर से हंस देती थीं. आसपास नज़र दौड़ाई,भइया-भाभी कोई नहीं दिखा, तब तक जाने कहां से विनीता आकर वहां खड़ी हो गई थी.
"कुछ चाहिए आपको?"
"चाय मिल जाती, तो आंख खुल जाती." मैंने हंसते हुए कहा. थोड़ी ही देर में वो एक कप चाय और बिस्किट लिए मेरे सामने मौजूद थी.
"आप नहीं ले रहीं चाय?"
वो चौंक सी गई, "अरे नहीं. बिना नहाए कुछ नहीं खाते-पीते हम लोग, घर में कोई भी नहीं."
मैं हैरान रह गया था. किस ज़माने में जी रहा है ये परिवार? जैसे-जैसे दिन बीतता गया, मेरी हैरत बढ़ती गई. हर बात पर नियम-क़ानून थे, "नीचे बैठकर खाना न खाओ... .बुधवार को सिर ना धो... चौखट पर ना खड़े हो..." और भी पता नहीं क्या-क्या! भाभी को ख़ुद कई बार उनकी मम्मी ने डांट दिया, "शहर में शादी हो गई, तो फैशन सवार है तुम पे... ना पूरी मांग भरती हो, ना पायल-बिछुआ पहनती हो... ये सब सुहाग की निशानी है..."
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मैं ये सब सुनकर मुस्कुरा देता था. कहने को तो अजीब-सा माहौल था, लेकिन धीरे-धीरे मुझे अच्छा लगने लगा था. भाभी-भइया को लेकर ख़ूब हंसी-मज़ाक होता था. ऐसे ही मज़ाक में एक दिन दादी ने मुझे भी छेड़ दिया, "सुनो लल्ला, बड़ीवाली को तुमाए भइया बिहा ले गए, विनीता को तुम बिहा ले जाओ, फिर अगली होली में सब जन रंग लगाओ एक-दूसरे को..."
इस बात पर जहां आंगन में बैठे सब लोग ठहाका मारकर हंस दिए थे, वहीं विनीता का चेहरा लाल पड़ गया था! मैं भी मुस्कुराने लगा था, ब्याहे जाने की बात से नहीं रंग लगाने की बात से.
अगले दिन होली थी. मैं अपने कुर्ते की जेब में रंग छिपाए विनीता को सुबह से ढूंढ़ रहा था, लेकिन वो पता नहीं कहां जाकर छुप गई थी. इस बीच भाभी मुझे कई बार रंगों से तर-बतर कर चुकी थीं. हर थोड़ी देर में आती थीं और एक बाल्टी रंग मेरे ऊपर डाल जाती थीं. मेरा वाला रंग का पैकेट भी वो मेरे सिर पर पलट चुकी थीं.
मुझे तो उनसे बदला लेने के लिए रंग तक नहीं मिल रहा था. तब तक देखा भइया एक कमरे में गए और पुड़िया में से लाल रंग निकालकर भाभी के सिर पर उड़ेल दिया, भाभी शरमाकर भागीं और भइया उनके पीछे-पीछे दौड़ पड़े! मैंने तुरंत वो पुड़िया उठाई, भाभी तो वहां दिखीं नहीं, कमरे में छुपी विनीता के सिर पर रंग डालते हुए मैं चिल्लाया, "हैप्पी होली!"
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें...
[caption id="attachment_153269" align="alignnone" width="196"] लकी राजीव[/caption]
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