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कहानी- गठबंधन 4 (Story Series- Gathbandhan 4)
“चलो, चलो सब बाहर निकलें, दामादजी का फोन है. वो तो यही समझेंगे कि हमारे कारण उनकी दुल्हन उनसे बात नहीं कर पाती.” सब निकल गए, तो बुआ जाते-जाते आंख मारकर शरारत से मुस्काईं, “कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा. शादी के बचे हुए दिन एंजॉय करो और उस गठ-बंधन से पहले बाकी सारी गठ-खोलन कर डालो.”
“मुझसे कोई नाराज़गी नहीं जताई लाडो? मुझे अपने ग़ुस्से के लायक भी नहीं समझती तू?” अतिरिक्त नम्र होकर पूछे गए प्रश्न से शायना का रहा-सहा आक्रोश भी बह गया.
“कैसी बातें करती हैं मौसी! आपने बहुत मदद की है. अगर आपका सहारा न होता तो...” अब अपने कटु शब्दों पर थोड़ा अफ़सोस होने लगा शायना को. बस, उस अफ़सोस को पढ़ना था कि मौसी ने कमान सम्हाल ली, “मदद सिर्फ़ मैंने ही नहीं की है. संयोग कहो या मेरी क़िस्मत, सिर्फ़ मेरी मदद नज़र आई है तुम्हें. तुम्हारी बुआ का घर अस्पताल से बहुत दूर था. फिर भी पूरे दो महीने, जब तक तुम्हारे मम्मी-पापा रहे तुम्हारी बुआ सिर्फ़ जाने-आने में पांच घंटे लगाकर चार तरह का खाना बनाकर लाती थीं. क्यों? ताकि तुम्हारे मम्मी-पापा को सरकारी अस्पताल का खाना न खाना पड़े. आज इतने साल एक गृहिणी की तरह घर सम्हालने के बाद तो समझना चाहिए तुम्हें कि इतना समय देना कोई आसान काम नहीं. मामा और चाचा भी दिन में एक बार चक्कर लगाते थे. मुख्य चिकित्सा अधिकारी से मिलकर किसी भी संभावना का जायज़ा लेने और अपने सामने कमरे की सफ़ाई कराने का काम उनके ज़िम्मे था. डॉक्टर और उपकरणों में कोई बुराई नहीं थी वहां, ये तुम भी जानती थीं. लेकिन ये बात इतने साल गृहस्थी चलाने के बाद शायद आज समझ सको कि प्राइवेट अस्पताल के पचास हज़ार रुपए प्रतिदिन कैसे कोई दे सकता है, जब ये भी पता न हो कि कितने दिन...
उनके बाद बीमा, भविष्य-निधि आदि के पैसों की भागादौड़ी भी तुम्हारे मामा, चाचा ने मिलकर की. इतने साल तुमने अभिभावक बनकर अपनी बहनों को पाला है. सही दिशा दी है. ज़रा सोचो, क्या ये सब बिना सख़्ती या डांट-फटकार के हो गया? क्या तुम्हारे भीतर एक अधिकार भाव और उनके भीतर का तुम्हारे प्रति आदर कि तुमने उनके लिए त्याग किया है या कभी एक मजबूरी का भाव कि ‘तुम्हारी बात मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं है’ इसमें सहायक नहीं हुआ? सोचो बेटा, सोलह वर्ष की नाज़ुक उम्र से गुज़रती तुम्हारी बहनें.
आन्या को किशोर वय का ‘प्यार’ नाम का सबसे ख़तरनाक रोग लगा हुआ और मान्या का पढ़ाई से छत्तीस का आँकड़ा. हम ये कतई नहीं कह रहे कि हमारे बच्चे किन्हीं समस्याओं से नहीं गुज़रे या उनमें कोई कमी नहीं है. बच्चों को उम्र के इस नाज़ुक दौर से सही सलामत निकाल लाना अभिभावकों के लिए यों भी चुनौती होती है. लेकिन इसका सामना करने के लिए अधिकार नाम का एक अस्त्र भी होता है. ऐसे में इंसान एक संपन्न और स्वतंत्र माहौल में पले बच्चे की ज़िम्मेदारी लेने की हिम्मत कैसे कर सकता है, जिसके बारे में हम जानते हैं कि वो हमें ख़ुद को आकार देने का अधिकार नहीं देगा या हम महसूस नहीं कर पाएंगे?.."
इतने सालों का जमा आक्रोश शब्दों में ढलकर निकल चुका था, तो खाली मन में आसानी से ये बातें प्रवेश पा रही थीं. एक नई दुनिया खुल रही थी शायना के आगे. दूसरे के दृष्टिकोण की दुनिया. उसके चेहरे पर हल्कापन पढ़कर और मन भी खुलने लगे... उन्हें पढ़ा तो शायना को भी बहुत-सी मददें याद आने लगीं.
“... ये सब छोड़, तू हमें स्वार्थी समझती है न, तो ये बता तुझे मन का गुबार निकालने के लिए उकसाने में हमारा कौन सा स्वार्थ है? क्यों हम अपना काम और घर छोड़कर एक हफ़्ते पहले से आ गए हैं?” चाची ने बड़े प्यार से उसके हाथ थामकर पूछा.
शायना का मन भी इस प्रश्न तक पहुंच ही गया था. उसके चहरे पर छपे इस प्रश्न ने मौसी को विह्वल कर दिया.
“औरों का तो पता नहीं, पर मैं तो सच में निजी स्वार्थ से आई हूं.” उनकी आवाज़ भावुक होती गई.
“जिस दिन से तू पैदा हुई थी न, मेरी बहन उसी दिन से तेरी शादी के ख़्वाब सजाने लगी थी. मैं तुम लोगों को लेकर देखे गए उसके हर सपने की गवाह हूं. पता है, शादीवाले दिन कलश गोठा जाएगा और सभी देवी-देवताओं के साथ मृत संबंधियों की आत्माओं को भी आशीर्वाद देने के लिए आमंत्रित किया जाएगा. अगर हमारे शास्त्र सही कहते हैं, तो मेरी बहन भी आएगी. मैं चाहती हूं कि वो अपने हर ख़्वाब को पूरा होता देखे. मैं उसकी हर ख़ुशी पूरी करना चाहती हूं, जो देह न होने के कारण वो ख़ुद नहीं कर सकती."
“मैं भी कलश में आमंत्रित भैया की आत्मा को उनकी लाडो के चेहरे पर उन्मुक्त हंसी देखकर तृप्त हुआ महसूस करना चाहती हूं. वो तृप्ति, जो जीते जी उन्हें नहीं मिली.” कहते हुए बुआ बिलख उठीं.
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“मन से पूर्वाग्रहों की चादर हटा दे लाडो, तभी ख़ुशियों का प्रवेशद्वार देख पाएगी.” शायना की पलकें एक बार फिर नम हो गईं. इस बार मम्मी-पापा की ख़ुशियोंभरी यादों से. रिश्तेदारों के अपनेपन से. आज वो देख पा रही थी कि उसके माता-पिता को प्यार करनेवाले और भी थे. उनका एंगिल समझ पा रही थी.
"दुनिया स्वार्थी और बेरहम है’ इस पूर्वाग्रह को लेकर शादी करने का मतलब है काला चश्मा पहनकर सुंदर फूलों के बगीचे में जाना. इंसान स्वार्थ और उदारता के स्याह-सफ़ेद रंगों से बनी पेंटिंग की तरह है. शादी से पहले इस बात को समझना एक नए रिश्ते में अपनेपन की बुनियाद डालने के लिए बहुत ज़रूरी है... क्योंकि प्यार का मतलब एक-दूसरे को उसकी कमियों और अच्छी-बुरी विचारधाराओं के साथ अपनाना है. दूसरे के दृष्टिकोण को समझे बिना लगाव..."
फोन की रिंग सुनकर चाची चुप हो गईं, तभी बुआ के स्वर में मस्ती आ गई, “चलो, चलो सब बाहर निकलें, दामादजी का फोन है. वो तो यही समझेंगे कि हमारे कारण उनकी दुल्हन उनसे बात नहीं कर पाती.” सब निकल गए, तो बुआ जाते-जाते आंख मारकर शरारत से मुस्काईं, “कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा. शादी के बचे हुए दिन एंजॉय करो और उस गठ-बंधन से पहले बाकी सारी गठ-खोलन कर डालो.” इस बार फोन उठाते हुए शायना के गालों पर लाज की सुर्खी आ गई. नफ़रत की गांठें खुल गईं थीं, प्रेम बंधन में बंधने को मन आतुर हो उठा था.
भावना प्रकाश
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