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कहानी- गठबंधन 2 (Story Series- Gathbandhan 2)
लोग समझाते कि बातें करने से मन बंधेगा, तो मन बगावत करने लगता. बंधने क्यों देना है मन को? क्या हासिल होगा इस स्वार्थी दुनिया के किसी भी व्यक्ति से बंधकर? और बातें करने से मन बंधा करता, तो साहिल का न बंधा होता. जाने कितनी रातें सारी-सारी रात जागकर फोन पर बातें की थीं दोनो ने. जब शादी कैंसिल हुई, तो कितनी ही रातें अकेली रोकर गुज़ारी थीं.
मान्या दौड़ती और खिलखिलाती आई, “चलो दीदी, मेहंदीवालियां आ गईं हैं.”
“तुम लोग लगवाओ, मैं थोड़ा आराम करके आती हूं.” शायना ने टालना चाहा.
“अरे थकान किस बात की? इसीलिए लड़भिड़कर शादी के पांच दिन पहले से छुट्टी दिलाई है हमने? फोटोग्राफर भी रेडी है. शुरुआत तो तुम्हारी मेहंदी से ही होगी. चलो.” और मान्या उसे खींच ले गई.
मेहंदी के थीम कलर लाल और हरे रंग के प्लाज़ो सूट में सजकर आईना देखा, तो एक आह निकल गई. ब्यूटीशियन कितनी भी कोशिश कर ले, उम्र से नहीं जीत सकती. पंद्रह साल पहले कुछ भी नहीं लगाया था, लेकिन चेहरे पर जो नूर था...
'जाने ये वेडिंग-प्लानर क्या-क्या करते रहते हैं. फोटो ऐसे खींची जा रही है, जैसे किसी फिल्म की शूटिंग हो और हर प्रोग्राम शुरू होने से पहले ये कमेंट्री... शादी हो रही है या डाक्यूमेंट्री बन रही है.‘ शायना पहले झुंझलाती, फिर थोड़ी देर ख़ुश और उत्साहित रहती, फिर कोई ख़लिश उसके उत्साह को रौंद देती.
“मेहंदी- एक ऐसी बूटी जो ठंडक देती है, तो मन को भी ठंडा करें मतलब अगर कोई ग़ुस्सा-गर्मी है मन में, तो निकाल दें भाई. मेहंदी ख़ुद को मिटाती है, तब रंगत लाती है. ऐसे ही छोटे-छोटे अहं त्यागेंगे, तभी तो नए व्यक्ति के साथ जुड़ पाएंगे. तो क्या आप दिनचर्या और जीवनशैली में दूसरे के मुताबिक़ थोड़े-बहुत बदलाव करने को तैयार हैं? तो इसी बात पर एक गेम खेलते हैं...”
शायना के मन की उहापोह मिटने की बजाय और गहरा गई. बदलाव... सैंतीस की उम्र में! किसी और के लिए? दुनिया की इतनी बेरहम सच्चाइयां देखने के बाद? यही तो वो सबसे बड़ी बातें थीं, जिनके कारण पिछले कुछ सालों से वो शादी टालती आ रही थी. हर लड़के में कोई-न-कोई कमी बताकर. अगर दोनों बहनें अड़ न जातीं कि उससे पहले शादी नहीं करेंगी, तो लड़कों से मिलने को भी राज़ी न होती.
लेकिन शिरीष में कोई कमी बता नहीं पाई थी. क्यों? मन प्रभावित हो गया था? छिपी दबी कामनाएं कसमसाने लगी थीं? बस, बहनें ही नहीं सारे रिश्तेदार पीछे पड़ गए थे. उसे ख़ुद सोई हुई उमंगों के अंगड़ाई लेने की आहट सुनाई देने लगी थी. लेकिन जैसे-जैसे शादी का दिन नज़दीक आ रहा था, वैसे-वैसे एक अनजाना-सा भय पांव पसारने लगा था मन में. शिरीष ने फोन पर बतियाकर दिल खोलने की पहल दो बार की थी, लेकिन उसकी रूखी औपचारिक बातों ने आगे बढ़ने का अवसर नहीं दिया था उन्हें. लोग समझाते कि बातें करने से मन बंधेगा, तो मन बगावत करने लगता. बंधने क्यों देना है मन को? क्या हासिल होगा इस स्वार्थी दुनिया के किसी भी व्यक्ति से बंधकर? और बातें करने से मन बंधा करता, तो साहिल का न बंधा होता. जाने कितनी रातें सारी-सारी रात जागकर फोन पर बातें की थीं दोनो ने. जब शादी कैंसिल हुई, तो कितनी ही रातें अकेली रोकर गुज़ारी थीं. कैसे व्यावहारिकता का बहाना बनाकर बहनों की ज़िम्मेदारी लेने से साफ़ इनकार कर दिया था साहिल के घरवालों ने.
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मामी खाने की थाली सजाकर ले आईं थीं. उन्होंने कौर उसके मुंह में डाला और शायना के दिमाग़ में वो दृश्य चलचित्र की तरह कौंध गया था, जब मामी ने आन्या की ज़िम्मेदारी लेने से साफ़ मना किया था. मामी ने चेहरा पढ़ लिया था और जैसे उसे सुनाकर आन्या से बोली थीं, "धान मंगा लिए हैं. वेडिंग हॉल में ले जाए जानेवाले सामान में रख दो. बड़ी ज़रूरी रस्म होती है धान की. लड़की भाई द्वारा सूप में डाला गया धान पीछे फेंकती चलती है. पता है, इसके कई मतलब निकाले जाते हैं. एक ये भी है कि जो कुछ भी अच्छा-बुरा मन में है लड़की उसे पीछे फेंक दे, भूल जाए, नई ज़िंदगी शुरू करने से पहले पुरानी सारी..."
उसके बाद की मामी की बातें ध्वनियां बनकर रह गई थीं. क्या भूल जाए? मम्मी-पापा की ज़िंदगी बचाने का एकाकी संघर्ष... दोनों किशोरी बहनों की पढ़ाई, सही आकार देने का एकाकी संघर्ष...
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें...
भावना प्रकाश
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