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व्यंग्य- दर्द के इम्यूनिटी बूस्टर… (Satire Story- Dard Ke Immunity Booster…)

Satire Story

मैं तो आपको आपके ही दर्द के इम्यूनिटी बूस्टर देने आया हूं. मैं नहीं चाहता कि आप अपने क़ीमती दर्द को खो दें, भूल जाए. सो इन्हें बनाए और बचाए रखने के लिए इन बूस्टर्स का प्रयोग करते रहिए, बड़ा लाभ होगा.

अब आपसे क्या बताएं जीवन का सत्य यही है कि व्यक्ति जिस माहौल और हालात में रहता है, वह वैसा ही सोचने लगता है, महसूस करने लगता है. मसलन जब एक गरीब का बच्चा स्कूल जाता है, तो मिड डे मील के बारे में कल्पना करता है, जबकि काॅन्वेंटवाला अपने लंच के बारे में सोचता है. मुझे याद है जब मैं स्कूल जाता, तो लंच में गिनती के बच्चे ब्रेड में रेड कलर का कुछ लगाकर लाते और अलग बैठकर खाते. ब्रेड मैं पहचानता था, लेकिन वह रेड आइटम क्या है यह मुझे कम-से-कम बचपन बीतने के बाद पता चला कि उसे जेली कहते हैं. जैम का तो ख़ैर मुझे तब पता चला, जब मेरे बच्चों ने डिमांड की और स्कूल जाने लगे.
आलम यह होता कि घर आकर जब मैं इस रेड चीज़ के बारे में पूछता, तो सब हंसते. फिर मैं ब्रेड की ज़िद करता, तो समझाया जाता कि परांठा ज़्यादा फ़ायदेमंद होता है. यह ब्रेड-वेड बहुत नुक़सान करती है. कभी बहुत ज़िद करता, तो महीने में कभी एक-दो पैकेट आता, वह भी स्वाद के लिए. पूरे परिवार में एक-दो स्लाइस के हिसाब से बंट जाता. और जो कोई पसंद नहीं करता था पैकेट की सबसे ऊपरवाली ब्रेड वह मुझे पसंद थी, तो वह मुझे एक्स्ट्रा मिलती. आज कि डेट में मजाल है कि कोई माता-पिता बच्चे की मांग पर घर में ब्रेड न लाएं और हफ़्ते में तीन दिन जैम ब्रेड का टिफिन न दें. ख़ैर मामला हालात और चिंतन का चल रहा था. इसी तर्ज पर आप पाएंगे कि किसी अपर मिडिल क्लास इनकम टैक्स पे करनेवाले को आटे, दाल और महंगाई से कोई लेना-देना नहीं है. वह तो बस मूल्य वृद्धि और पावर्टी लाइन पर घड़ियाली आंसू बहाता है. जबकि उसकी चिंता शेयर बाज़ार और सेंसेक्स रहती है. हां, फीस वृद्धि पर वह बिफर उठता है, क्योंकि वह काॅन्वेंट में होती है, सरकारी स्कूल में नहीं.
मैं मुद्दे से ज्यादा दूर नहीं जाना चाहता और न ही शीर्षक से आपको भटकना चाहता, क्योंकि मैं जानता हूं अगर मैंने ऐसा किया, तो आपका इंटरेस्ट मेरी राइटिंग से खत्म हो जाएगा.
तो जैसा कि आपको पता ही है मैं साल का अंत आते-आते कोरोना ग्रसित हो गया हूं और बस अब कुछ दिन का क्वारंटाइन पीरियड और बचा है.
अब कोरोना हो और डर-दर्द न हो यह हो ही नहीं सकता. और फिर इस भय-दर्द के भीतर से इम्यूनिटी और इम्यूनिटी बूस्टर्स न पैदा हों, यह भी नहीं हो सकता. क्योंकि यह तो जीवन का नियम है, जिसे विज्ञापनवालों ने चुरा लिया है 'डर के आगे जीत है '… यह तो मुझे क्वारंटाइन से बाहर निकलकर ऑफिस जाने पर ही पता लगेगा कि मैं जीता या नहीं. हां, दस दिन पूरे होते ही मुझे राज्य सरकार के कोरोना कंट्रोल रूम से यह जंग जीतने की बधाई मिल चुकी है. इस हिदायत के साथ कि सावधानी बनाए रखें. बस, यह कहना रह गया 'सावधानी हटी, दुर्घटना घटी.'
अब आप मेरे भीतर उमड़ रहे दर्द और इस दर्द से पैदा हुई पीड़ा से निजात के लिए खोजे जा रहे ढेरों इम्यूनिटी बूस्टर के तर्क को समझ गए होंगे.
वैसे इस टॉपिक के शीर्षक को देखकर यह लगता है कि मैं दर्द बढ़ानेवाले टॉनिक की बात कर रहा हूं. इसमें सिरफिरे वाली कोई बात नहीं है, विश्‍वास मानिए मैं दर्द बढ़ानेवाले टॉनिक और इम्यूनिटी बूस्टर्स की बात ही करनेवाला हूं, जो आपसे आपका क़ीमती दर्द न छीन सकें.

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यह अजीब बात नहीं है जहां लोग पेनकिलर बेचकर कमाई करते हैं, मैं दर्द बेचने में लगा हूं, उसकी ब्रांडिंग कर रहा हूं, उसे लाकर देने की पेशकश कर रहा हूं…
मेरी बात पर गौर करेंगे, तो भरोसा करें, आज आपके हाथ एक बहुमूल्य ख़ज़ाना लग जाएगा.
आपने कोई ऐसी कहानी पढ़ी है, कोई ऐसी फिल्म देखी है, जिसमें दर्द न हो. हां, आपने ठीक समझा बिना दर्द के कोई कहानी नहीं होती, कोई प्लेयर, कोई एक्टर, कोई राइटर नहीं होता. इसका अर्थ यह भी है कि वे जो बिना दर्द के आराम से अपनी ज़िंदगी गुज़ार देते हैं, उनकी कोई कहानी नहीं होती. उन्हें कोई नहीं पूछता और दूसरे शब्दों में कहें, तो यह जीना भी कोई जीना है लल्लू. थोड़ा नज़र दौड़ाइए, जितने बड़े लोग मिलेंगे वे सब दर्द से होकर गुज़रे हैं. इससे कम-से-कम यह तो सिद्ध होता ही है कि बड़े लोगों को बड़ा बनाने में दर्द का बहुत बड़ा हाथ है. शायर तो इसे बाकायदा मुनादी करके मानते हैं, जो कहते हैं जब दर्द नहीं था सीने में, तब खाक मज़ा था जीने में…
वैसे ही मिर्जा गालिब के इस शेर से कौन दो-चार नहीं होगा, जो कहता है- आख़िर इस दर्द की दवा क्या है…
तभी एक कह उठता है- दोस्तों अच्छा किया तुमने सहारा न दिया, मुझको लरजिश की ज़रूरत थी संभलने के लिए… तो एक कहता है- सुना है लूट लिया है किसी को रहबर ने.. ये वाकया तो मेरी दास्तान से मिलता है…
अब भला बताइए यह सब दर्द के आख्यान हैं या नहीं. ईमानदारी से दिल पर हाथ रखकर कहिएगा, जब आप दर्दभरे नगमें या ग़ज़ल सुनते हैं, तो दिल को ज़्यादा सुकून मिलता है कि नहीं! आख़िर क्यों? सीधा-सा मामला है दर्द आम आदमीं के जीवन का स्थायी भाव है.
वह हंसता है, मुस्कुराता है, गाने गाता है, तो बस इस दर्द को छुपाने के लिए. तभी तो लिखा गया- तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या ग़म है, जिसको छुपा रहे हो…
अब आप ही बताइए अगर मैं आपको इस दर्द का इम्यूनिटी बूस्टर देने निकला हूं, तो आप लेंगे कि नहीं लेंगे. मैं जानता हूं आप दुनिया को दिखाने के लिए इस से इनकार कर देंगे. अरे दर्द कौन लेता है भाई. अपना ही दर्द कौन सा कम है कि दूसरे का उधार ले लें. उसके लिए तो राज कपूर जैसा बहुत बड़ा दिल चाहिए, जो मेरा नाम जोकर में बड़ा होते-होते फट गया था, क्योंकि वही शख़्स है जिसने कहा- किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार…
ख़ैर जाने दीजिए, आम आदमी के पास इतना बड़ा दिल कहां है. हां, मैं तो आपको आपके ही दर्द के इम्यूनिटी बूस्टर देने आया हूं. मैं नहीं चाहता कि आप अपने क़ीमती दर्द को खो दें, भूल जाए. सो इन्हें बनाए और बचाए रखने के लिए इन बूस्टर्स का प्रयोग करते रहिए बड़ा लाभ होगा.

भला क्यों जानते हैं?
कहते हैं दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना. सो मैं चाहता हूं मेरे इम्यूनिटी बूस्टर्स आपके इस दर्द को दवा में बदल दें. यह बात मेडिकली भी सही है. जब आप डॉक्टर से पूछेंगे, तो वह बताएगा कि दर्द सबसाईड करने में दवा कम, दवा का सूडो इफेक्ट कहीं अधिक काम करता है.
और सबसे बड़ा पेनकिलर तो हमारी बॉडी बनाती है.
तभी तो हम अपने हॉस्पिटल में या अपने चैंबर में अपनी कुर्सी के ऊपर लिख कर रखते हैं- आई ट्रीट ही क्योरस अर्थात इलाज तो मैं कर रहा हूं, ठीक भगवान कर रहा है.
इसमें ग़लत भी कुछ नहीं है, क्योंकि कोरोना के केस में तो अभी कोई दवा ही नहीं हुई है. सो यह भ्रम कि पेशेंट का इलाज चल रहा है या कुछ दिक़्क़त हुई, तो यह हॉस्पिटल, डॉक्टर मुझे देखेगा. वक़्त ऑक्सीजन और वेंटिलेटर लगा देगा, जो पेशेंट को ठीक कर देता है.
कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनके चेहरे पर परमानेंट मुस्कान छाया रहती है. इन्हें देखकर लगता है- वाह वाह क्या बात है ये परमानेंट ख़ुश नज़र आते हैं. मैं तो ऐसे ही लोगों को ढूंढ़ता हूं और पूछता हूं, ज़िंदगी में इतना बनावटीपन क्यों? इनके लिए ही कहा गया है-
अहले दिल यूं भी सजा देते हैं, दर्द सीने में छुपा लेते हैं… इन्होंने ज़िंदगी के दर्द दुनिया क्या ख़ुद से भी इतने गहरे छुपा रखा है कि गाहे-बगाहे ही नज़र आता है जब ये सोने चलते हैं या फिर अकेले होते हैं. और फिर यह हल्के से उभरकर इनके चेहरे पे उतर आता है, लेकिन तब कोई देखनेवाला नहीं होता और फिर ये कहते हैं- करवटें बदलते रहे, सारी रात हम… और कई तो इसके बहाने रोज शाम को प्रोग्राम बनाकर इस दर्द का तफ़सरा करते हैं, कभी ग्रुप में, तो कभी ख़ास दोस्त के साथ और कोई नहीं मिला, तो अकेले में और कहते हैं- मुझे दुनियावालों शराबी न समझो… कहां तक कहूं आप तो सब समझ ही रहे हैं.
मेरी बात मानिए दर्द से छुटकारे का प्रयास छोड़ दीजिए गालिब पहले ही कह गए हैं- कैदे हयात और बंदे ग़म, अस्ल में दोनों एक हैं अर्थात ज़िंदगी की क़ैद और इंसान का दर्द एक ही है.
सो जब यह इतना ऐशेनशियल है, तो क्यों न इसे बनाए रखने और बचाए रखने दुनिया की निगाहों से छुपाए रखने के लिए इसके इम्यूनिटी बूस्टर्स लेते रहा जाए. क्या पता कब ज़िंदगी का यह दर्द किसी दिन हमें भी कुछ बना दे.
देखिए मैं लेक्चर और सलाह में कतई विश्‍वास नहीं करता. ऐसे बाबा लोग व्हाट्सऐप पर धुआंधार ज्ञान बांटते रहते हैं, लेकिन तमाम अच्छी बातों और गुड मॉर्निंग, जिसमें लिखा होता है आपका दिन शुभ हो के बाद भी क्राइम का ग्राफ कम नहीं हुआ है.
सो लोग किस-किस तरह के बूस्टर इस्तेमाल कर रहे हैं अपने डे-टुडे लाइफ में वह मैं आपके साथ शेयर करता हूं और अंत में मैं इस दर्द पालने का लाभ बताऊंगा.
देखिए कुछ तो हैं जो कहते हैं- तेरी तस्वीर को सीने से लगा रखा है, हमने दुनिया से अलग गांव बसा रखा है.
अब ऐसे लोगों का उनके साथ रह रहे लोग क्या बिगाड़ लेंगे. ये इधर-उधर घूमते सब काम करते नज़र आएंगे और दिल में एक अलग दुनिया बसाकर मीठे-मीठे दर्द के साथ जीते रहेंगे. अब सोचिए, इसमें इम्यूनिटी बूस्टर क्या है? नहीं समझे तेरी तस्वीर अब जो है, वो तो है नहीं तस्वीर बसा ली.

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चलिए एक दूसरा बूस्टर बताता हूं. कुछ लोग हमेशा गाते हुए मिलेंगे- कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन. इनसे आप कभी भी कोई भी बात करेंगे, ये आपको अपने पुराने ख़्याल, अपनी ज़िंदगी के बीते हुए दिनों पर ले आएंगे. काॅलेज में पढ़े तीन साल, शादी हुए हो गए तीस साल, दो-तीन बच्चे हो गए, बच्चों के बच्चे हो गए और ये गा रहे हैं कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन. ऐसे लोग न घर के रहते हैं, न घाट के. बीते हुए दिन तो लौटते नहीं और जो हैं वो भी जाया हुए जा रहे हैं. ज़िंदगी न तब जी, न अब जी रहे हैं, लेकिन इम्यूनिटी बूस्टर तो है ही. इनके लिए बीते हुए दिनों के ख़्याल में जीते जाना.
एक और टाइप के लोग हैं. ऐसे लोग शायर-वायर होते हैं. ये डिफरेंट टाइप का बूस्टर लेते हैं, जैसे- मेरे तमन्नाओं की तक़दीर तुम संवार दो, प्यासी है ज़िंदगी और मुझे प्यार दो… ये बड़े ख़तरनाक होते है. दो-चार अफेयर कर चुके होते हैं और गाते फिरते हैं प्यासी है ज़िंदगी और मुझे प्यार दो. ये बस तमन्नाओं का इम्यूनिटी बूस्टर लेते हैं. इन्हें बस, प्यासे रहने में मज़ा आता है. ऐसे लोग कहते हैं- तुझे देखा नहीं महसूस किया है मैंने.. आ किसी रोज़ मेरे एहसास को बेहतर कर दे..
अब ये इतने नज़ाकत भरे होते हैं कि उम्र गुज़र जाती है और इनकी तमन्ना वहीं खड़ी रहती है. जिसकी तमन्ना कर रहे थे उसकी शादी हो गई, बच्चे हो गए और ये अभी भी ख़्याल में जी रहे हैं. तुझको देखा नहीं महसूस किया है मैंने, अब ज़िंदगीभर महसूस करते रहो. तुम्हें समझ ही नहीं आएगा कि जिसे महसूस किया था, वो अब मेंटली किस दुनिया में है. बेचारी न जाने कितने शुगर, ब्लड प्रेशर, थायरॉइड की मेडिसन खा-खाकर अपने बच्चों की शादी के लिए रिश्ता ढूंढ़ रही है. और आप जनाब, आ किसी रोज़ मेरे एहसास को बेहतर कर दे का इम्यूनिटी बूस्टर लिए जा रहे हैं. लेते रहिए, ख़्यालों में जीते रहिए, किसने रोका है. न आप ख़ुद को नुक़सान पहुंचा रहे हैं, न परिवार को, न उसे, न समाज को. क्या फ़र्क पड़ता है कि अब आप क्या कर रहे हैं क्या सोच रहे हैं.
वैसे ऐसे ही बहुत से इम्यूनिटी बूस्टर हैं इस दर्द को दिल में जमाए और बसाए रखने के. आपको इशारा दे दिया है बाकी आप नेट पर गूगल सर्च कर लीजिएगा. अगर गूगल फेल हो गया, तो मैं ख़ुश हो जाऊंगा कि ज़िंदगी के जिस फ़लसफे की खोज मैंने की है, वह गूगल भी नहीं कर सका, तो हो न हो यह मेरी ओरिजिनल खोज है.
ख़ैर अब लास्ट प्वाइंट, मैंने कहा था न कि अंत में मैं इस ग़म पालने के लाभ बताऊंगा तो वह वक़्त आ गया है. एक शायर है, जो मशहूर ग़ज़ल लिख गए हैं- ज़माने भर के ग़म या एक तेरा ग़म.. ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे..
समझे कुछ, नहीं समझे, मुझे एक्सप्लेन करना ही पड़ेगा. देखिए शायर कह रहा है कि एक तरफ़ तो दुनियाभर के ग़म हैं, दूसरी तरफ़ तुम्हारा ग़म. अब तुम्हारा ग़म इस दुनियाभर के ग़म पर भारी है. सो उसके होने का एक बहुत बड़ा फ़ायदा यह है कि इसके सामने अनेक ग़म नहीं होंगे. व्यंग्य के नज़रिए से कहूं, तो वह कह रहा है तुम्हारे ग़म के आगे ज़मानेभर के सारे ग़म पानी भरते हैं, सो तुम्हारे ग़म को होने का यह फ़ायदा तो है कि इसके होते हुए दूसरा कोई ग़म हो ही नहीं सकता.
तो आप समझ सकते हैं कि यह शायर लोग कितने ख़तरनाक, कितने स्मार्ट लोग हैं, जो एक दर्द पाल लेते हैं, उसे ज़िंदगीभर इम्यूनिटी बूस्टर देते हैं और ज़मानेभर के सारे ग़म से दूर अपनी दुनिया में खोए रहते हैं.
वैसे एक बात कहूं आख़िर में ये जो दर्द के इम्यूनिटी बूस्टर हैं, गौर से देखेंगे, तो ये किसी भी दर्द ख़िलाफ़ भी इम्यूनिटी बूस्टर का काम करते हैं, बस देखने का नज़रिया है, जैसे-
एक बस तू ही नहीं मुझ से खफ़ा हो बैठा
मैंने जो संग तराशा वो खुदा हो बैठा..
शायर एक तरफ़ तो कह रहा है कि उसका महबूब उस से खफ़ा है और दूसरी तरफ़ इसका क्रेडिट भी ले रहा है कि तुम तो बस वो पत्थर हो, जिसे मैंने तराशा था और तुम मुझे मेरी मेहनत को भूल कर खुदा हो गए.
अब आप ही बताइए ऐसे दर्द और उस दर्द के लिए ख़ुद को पॉजिटिव फ्रेम में रहनेवाले लोगों का शायरों का बड़े से बड़ा दर्द दुनियावी दर्द कुछ नहीं बिगाड़ सकता, क्योंकि ये कहते हैं इनके दिल में तो वह मै (वाईन) बहती रहती है, जो दिल में ही तैयार होती है, मसलन- उस मै से नहीं मतलब, दिल जिससे हो बेगाना, मकसूद है उस मै से दिल ही में जो खींचती है.. सो ये कहते हैं दर्द के बहाने हम जो आनंद उठा रहे हैं, उस पर हंगामा मत खड़ा करो, क्योंकि इसका तुम्हारी दुनिया से कोई लेना-देना नहीं है, यह मेरे दिल की दुनिया है.. और तब वह कहता है- हंगामा है क्यूं बरपा थोड़ी सी जो पी ली है, डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है..

Murali Manohar Srivastava
मुरली मनोहर श्रीवास्तव


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