"मैं तो बस एक बात समझती हूं कि बहू भी किसी की बेटी होती हैं. बहू को बेटी बनाने के लिए सास को भी तो मां बनना पड़ेगा. उसकी भावनाएं समझनी होंगी. हम चाहते हैं हमारी बेटी को उसके ससुरालवाले बेटी जैसा प्यार दे, तो अपनी बहू को बेटी समझने में दिक़्क़त क्यों?"
दोपहर में गपशप के इरादे से विमला जब सुमित्रा के घर आई, तो देखा वह काम में व्यस्त थी. धीरे से झांककर देखा, कमरे में बहू चादर तानकर आराम से सोई है.
"क्या ज़माना आ गया है बूढ़ी सास आराम करने के दिनों में बेचारी काम में लगी है और बहू चादर तानकर आराम से सो रही है."
विमला ने आंगन में सूखते कपड़ों, सूखे कपड़ों के ढेर और धुले बर्तनों की तरफ़ देखते हुए मुंह बिचकाकर कहा.
"ऐसा नहीं है बहू की तबीयत ठीक नहीं है, वरना तो वह मुझे कोई काम नहीं करने देती." सुमित्रा ने बताया.
"आजकल की बहुएं होती ही हैं कामचोर. वह काम से बचने के लिए जब-तब बीमारी का बहाना बना लेती हैं. मेरी बहू भी ऐसी ही है." कहकर विमला सुमित्रा की बहू के साथ ही साथ ख़ुद की बहु की भी बुराई करने लगी.
"ऐसा नहीं है जब हमारी बेटी की तबीयत ख़राब होती है, तब क्या हम उसे खाना बनाकर नहीं खिलाते. तो फिर बहू को बनाकर खिलाने में क्यों तकलीफ़?" सुमित्रा ने बहू के लिए दूध गर्म करते हुए कहा.
"अरे तू तो कुछ नहीं समझती बहू कभी बेटी नहीं हो सकती." विमला ने कहा.
"मैं तो बस एक बात समझती हूं कि बहू भी किसी की बेटी होती हैं. बहू को बेटी बनाने के लिए सास को भी तो मां बनना पड़ेगा. उसकी भावनाएं समझनी होंगी. हम चाहते हैं हमारी बेटी को उसके ससुरालवाले बेटी जैसा प्यार दे, तो अपनी बहू को बेटी समझने में दिक़्क़त क्यों?"
कहते हुए सुमित्रा दूध का ग्लास लेकर बहू के कमरे की ओर बढ़ गई. विमला अपना-सा मुंह लेकर रह गई. बुखार में तपी होने पर भी बहू की आंखों में ख़ुशी के आंसू आ गए.
- डॉ. विनीता राहुरीकर
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