हमारे अपने हालात चाहे जैसे चल रहे हों, हम इस बात की ख़बर ज़रूर रखते हैं कि हमारे पडोसियों के ऊपर क्या बीत रही है. मामले को और न उलझाते हुए मैंने देखा है कि शाम होते ही हम देश दुनिया के मामले निपटाने लगते हैं. टीवी के आगे बैठकर और फिर ख़बर में डूबकर बहस में उलझ जाते हैं. लास्ट में एक्सपर्ट कमेंटेटर बन के काॅलर खड़े करने लगते हैं.
भाईसाहब मुझे आज तक एक बात समझ में नहीं आई शादी में काम तो बस दूल्हे-दुल्हन का होता है, लेकिन ख़ुश पूरी बारात होती है. और इससे भी बढकर जिस-जिस गली से बारात गुज़रती है, उस गली के जाने-अनजाने सभी क्यों नाचने-गाने लगते हैं. वैसे शादी के बाद दुखी रहने के बारे में सभी बढ़-चढ़ के बातें करते हैं. वैसे आप जो भी समझें इसे मैं नेशनल कैरेक्टर समझता हूं, जो मज़ा हमें अपने मुद्दों में नहीं आता, वह मज़ा हमें दूसरों के मुद्दों में दख़ल देकर आता है. हमारे अपने हालात चाहे जैसे चल रहे हों, हम इस बात की ख़बर ज़रूर रखते हैं कि हमारे पडोसियों के ऊपर क्या बीत रही है. मामले को और न उलझाते हुए मैंने देखा है कि शाम होते ही हम देश दुनिया के मामले निपटाने लगते हैं. टीवी के आगे बैठकर और फिर ख़बर में डूबकर बहस में उलझ जाते हैं. लास्ट में एक्सपर्ट कमेंटेटर बन के काॅलर खड़े करने लगते हैं. अभी आईपीएल का क़िस्सा ही ले लीजिए न टीम का पता, न खिलाड़ी का, पर जहां देखिए वहां क्रिकेट के दीवाने जमे पड़े हैं. खेल के नियम-कायदे तक का ज्ञान नहीं है और हम हैं कि रात-बे रात टीवी से चिपके पड़े हैं. किसी से पूछो क्या देख रहे हो, तो बोलेगा कि देख नहीं रहे क्या चल रहा है.. यहां तक कि फ्री हिट और ऑफ साइड पर बहस हो जाती है. ऑफिस में लोग बाग यहां तक बता देते हैं कि रेफरी किसकी तरफ़ मिला था और किस प्लेयर को धक्का किस ने दिया. वह भी किस वजह से. वैसे ही कोई वर्ल्ड कप से पहले रिज़ल्ट की सही भविष्यवाणी कर रहा है, जबकि हमें अपने दिन-रात का पता नहीं.
कहने का अर्थ यह कि बेगानी शादी तो बस सिंबल भर है, असल बात तो हमारे चरित्र और सोच की है. किस तरह हम अपने हालात से बेख़बर दूसरों की खोज-ख़बर में जुटे हैं. सबसे ज़्यादा टीआरपी न्यूज चैनेल्स की है. न्यूज में ख़बर क्या है, यह हम सब जानते हैं. नेशनल अफेयर हो या इंटरनेशनल अफेयर सब सुनने-समझने के बाद दो मिनट की ख़बर अगर सब्ज़ी और मंहगाई की आ जाए, तो हम बेरुखी से चैनेल बदल देते हैं. भले ही सुबह से शाम तक मंहगाई पर बहस करते रहें और बढ़ती क़ीमत को कोसते रहें, क्योंकि अब मंहगाई फैशन हो गई है ख़बर नहीं रही. हम सब जानते हैं यह एक विकासशील कैटेगरी का आइटम है. ठीक फिल्मों में ग्लैमर की तरह जो सन साठ से आज तक बस बढ़ता ही गया है. जो सीन कभी एडल्ट फिल्मों से काट दिए जाते थे, वे आजकल टीवी पर फैमिली के साथ देखे जाते हैं अर्थात मंहगाई किस सीमा तक जाएगी इस पर चर्चा करना बेमानी है.
यहां तक कि हम अपनी समस्या के समाधान की खोज दूसरों के कंधे पर बंदूक रखकर करना चाहते हैं अर्थात मुद्दा हमारा है, पर हमारे बदले लड़ दूसरा ले. ख़ैर इसका उल्टा भी सच है कि कहीं कोई लड़ाई-झगड़ा या बहस हो रही हो, तो हमें तब तक चैन नहीं मिलता, जब तक हम अपनी टांग उसमें अड़ा न दें. वैसे ही जब मामला किसी की कमी बताने या किसी को नीचे गिराने का हो, तो देखिए भला हम किस हद तक बिना उससे लाइफ में एक भी बार मिले कैसे काॅन्फिडेंस के साथ काम करते हैं और यहीं किसी की तारीफ़ करनी हो, तो जैसे हमारे शब्द सूख जाते हैं वह भी अगर अपने किसी क़रीबी की उपलब्धि का मामला हो, तब ऐसा लगता है अच्छे शब्दों पर भी टैक्स लगा हुआ है.
लास्ट में मामला बेगानी शादी का मुझे लोगों से सच में पूछना पड़ा कि भाई आदमी बेगानी शादी में इतना ख़ुश क्यों होता है? और विश्वास मानिए, मुझे बिना गुगल के सही जवाब मिला कि पता नहीं उस शादी के ढोल-ताशे और नगाडे में कौन-सा नशा है कि जैसे ही वह बजने लगता है अपना मन अपने आप नाचने लगता है और पैर थिरकने लगते हैं. इसे ही अगर हम अपने ज़िन्दगी का नज़रिया बना लें अर्थात ख़ुश रहने के लिए अपने से ऊपर उठ जाएं, तो बस कहना ही क्या? अगर हमने दूसरों के सुख में सुख और दुख में दुख महसूस करना सीख लिया, तो बहुत कुछ बदल जाएगा, क्योंकि अभी हम अनजाने ही दूसरों के सुख में अपने भीतर दुख और दूसरों के दुख में अपने भीतर सुख ढूढ़ते हैं.
मुरली मनोहर श्रीवास्तव
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