पीरियड्स को आज भी शर्मिंदगी का विषय माना जाता है! यही वजह है कि बहुत सी महिलाएँ आज भी काफ़ी तकलीफ़ में रहती हैं. इसी के चलते टाटा ट्रस्ट्स ने पहल की मेंस्ट्रुअल हाइजीन प्रोग्राम की. यह शुरुआत द टाटा वाटर मिशन के तहत हुई और इसमें कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए.
भारत के कई राज्यों के गाँवों में फेज़ वाइज़ इसको लेकर सर्वे किए गए. राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, उत्तराखंड, झारखंड, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के गाँवों को भी इसमें शामिल किया गया.
आज भी कई महिलाएँ पैड्स की जगह कपड़ा ही यूज़ करती हैं जो काफ़ी अनहाइजिनिक होता है और कई तरह के इंफ़ेक्शन्स का डर बना रहता है.
सर्वे में पाया गया कि
- 70% महिलाओं को यह भी पता नहीं होता कि उन्हें पीरियड्स क्यों होते हैं.
- 92% महिलाओं को लगता है कि वाइट डिसचार्ज उनके शरीर के लिए हानिकारक होता है.
- 40% महिलाओं को लगता है कि पीरियड्स के बारे में बात करने में कोई बुराई नहीं.
- लेकिन उनमें से मात्र 10.25% ने ही इसको लेकर अपनी मां से बात की.
- 55% महिलाएँ पीरियड्स के दौरान किचन में नहीं जातीं.
- कई महिलाओं को 9km पैदल चलकर जाना पड़ता है पीरियड्स से जुड़ा सामान लाने के लिए.
- 20% महिलाएँ पीरियड्स के दौरान टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं करतीं.
इन तथ्यों के आधार पे टाटा वाटर मिशन ने मेंस्ट्रुअल हाइजीन प्रोग्राम बनाया जिसमें किशोरों को जागरुक करने का काम किया गया. महिलाओं से बात की, लड़कों और पुरुषों से भी बात की गई. इस अभियान के तहत इन बातों पे ध्यान दिया गया-
- स्कूल में व समाज में भी किशोरियों व महिलाओं से बात करके एजुकेट किया गया, उनको ट्रेनिंग व सैनिटाइज़ेशन सेशंस दिए गए.
- समाज में पुरुषों व स्कूल में भी किशोरों से बात करके उन्हें पीरियड्स के बारे में जागरूक किया गया और इस बात का एहसास कराया गया कि उनका सहयोग कितना ज़रूरी है और यह सहयोग किस तरह से मदद कर सकता है.
- महिलाओं को ईको फ़्रेंडली प्रोडक्ट्स मिल पाएं इसके लिए सप्लाई चेन की व्यवस्था की गई, साथ ही स्थानीय लोगों व महिला उद्यमियों को प्रोत्साहित किया गया इस तरह के प्रोडक्ट्स का निर्माण स्थानीय स्तर पर ही हो पाए.
- सैनिटरी वेस्ट को सुरक्षित तरीक़े से डिसपोज़ किया जा सके इसके प्रबंध से जुड़ी बातों की व्यवस्था भी की गई.
पिछले तीन सालों से यह प्रयास चल रहा है और इसका असर व प्रभाव भी नज़र आया. कई महिलायें व बच्चियां इससे लाभान्वित हुईं, लेकिन लॉकडाउन के चलते इस क्रम में बदलाव व रुकावट निश्चित तौर पे आई है जिससे जो महिलायें व बच्चियाँ पैड्स यूज़ करने लगी थीं वो फिर से कपड़े के इस्तेमाल को मजबूर हो गईं.
काम बंद है तो पैड्स भी उन्हें उपलब्ध नहीं. इसी के चलते उन्हें अब इस दिशा में जागरुक किया का रहा है कि कपड़े को हाइजिनिक तरीक़े से कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है. उन्हें खुद अपना कपड़े का पैड बनाने की दिशा में भी आत्मनिर्भर किया जा रहा है.
सेल्फ हेल्प ग्रुप्स को भी इस काम में आत्म निर्भर बनाया गया जिससे वो भी उधोग की शुरुआत कर सकें और इसी वजह से उत्तर प्रदेश में 1500 कपड़े के पैड्स बनाए व बेचे गए. यही नहीं लगभग 20,000 से अधिक महिलाओं को खुद घर में इस तरह के क्लोथ पैड्स बनाने की ट्रेनिंग भी दी गई.
यह भी पढ़ें: महिलाओं के सेहत से जुड़े 5 प्रभावशाली सुझाव… (5 Ideas For Improving Women’s Health…)