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कहानी- मन की कस्तूरी (Short Story- Mann Ki Kasturi)

“एज्युकेशन कभी व्यर्थ नहीं जाती बेवकूफ़, ज़िंदगीभर काम आती है?” हाथ धोते हुए शैली ने कहा.
“और कहीं काम आती तो दिखती नहीं… न कुकिंग में, न निटिंग में…” “मैं बताऊं.” उछलती हुई पलक बीच में कूद पड़ी, “मैं बताऊं… आपकी सारी पढ़ाई हमें पढ़ाने में ख़र्च हो रही है… है न मम्मा?” खिलखिलाते हुए दोनों बच्चे रूम से बाहर निकल गए. वही के वही शब्द, कहा तो था उसने- वो भी पंद्रह वर्ष पहले. इसका ज़िक्र तो आज तक शैली ने अपने पति कबीर के आगे भी नहीं किया. फिर उन्हीं शब्दों को इन दोनों ने कैसे… और भला क्यों दोहराया?

''अंगूठा गर्दन पर और उंगलियों से चारों टांगें कब्ज़े में ले लो… अब ये लाख छटपटाए, भाग नहीं सकता.”
“ऐसे कब तक पकड़े रखेंगे?” दोनों बच्चे नाक-मुंह ढंके चार क़दम दूर खिसक लिए.
“तब तक, जब तक हमारा ऑब्जेक्ट बेहोश न हो जाए.”
“इयाक्… मुझसे तो नहीं होगा ये सब.” चेहरे पर भय और घृणा के भाव लिए पुलक बोला.
“डरपोक कहीं के, डॉक्टर क्या खाक बनोगे?” कुछ ही पलों में राना टिग्रीना यानी मेंढक, एक उल्टे हवाई चप्पल पर पंजों में चुभे हुए पिनों के साथ, चारों खाने चित्त चीरा-फाड़ी के लिए तैयार लेटा पड़ा था. पढ़ाई को अलविदा कहे इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी शैली के हाथ मेंढक की एनाटॉमी समझाते हुए बिल्कुल कांप नहीं रहे थे. पुलक और पलक लिवर, किडनी, हार्ट, इन्टेस्टाईन में उलझी उसकी उंगलियों को अचरज से देखते रहे. सदा चूल्हे-चौके में व्यस्त मां के ममतामयी हाथों का यह विद्रूप रूप देख निसंदेह उन्हें हैरानी हो रही थी.
“केमिस्ट्री, बॉटनी, जुलॉजी… इतनी कठिन पढ़ाई, आख़िर किसलिए मम्मा? ये सब अब आपके किस काम की?” पुलक के माथे पर बल पड़ गए.
“एज्युकेशन कभी व्यर्थ नहीं जाती बेवकूफ़, ज़िंदगीभर काम आती है?” हाथ धोते हुए शैली ने कहा.
“और कहीं काम आती तो दिखती नहीं… न कुकिंग में, न निटिंग में…” “मैं बताऊं.” उछलती हुई पलक बीच में कूद पड़ी, “मैं बताऊं… आपकी सारी पढ़ाई हमें पढ़ाने में ख़र्च हो रही है… है न मम्मा?” खिलखिलाते हुए दोनों बच्चे रूम से बाहर निकल गए. वही के वही शब्द, कहा तो था उसने- वो भी पंद्रह वर्ष पहले. इसका ज़िक्र तो आज तक शैली ने अपने पति कबीर के आगे भी नहीं किया. फिर उन्हीं शब्दों को इन दोनों ने कैसे… और भला क्यों दोहराया? शैली ने एक गहरी सांस ली. जीवन ऐसा ही है- छोटी-छोटी बातें भी आदमी नहीं भूलता. कुछ बातें मन के आंगन में इतनी गहरी दबी रहती हैं कि व़क़्त चाहे कितना भी लंबा बीत जाए, मिटती नहीं, बिल्कुल जीवाश्म की तरह.
फ़ाइनल ईयर की परीक्षाएं सिर पर थीं. साल भर किसी सॉल्ट को हाथ नहीं लगाया? लो अब सूंघ लो, चाट लो. जाने परीक्षा में कौन-सी पुड़िया थमा दी जाए. अभी तक एक भी डाइसेक्शन नहीं किया? तो लो मेंढक, मच्छी, केंचुआ, कॉक्रोच सब पर हाथ आज़मा लो. स्टूडेन्ट्स फॉर्मलीन की गंध सूंघते बेहोश होने तक कांपती टांगें लिए लैब में घंटों ऐसे बिता देते जैसे सबके सब महान वैज्ञानिक बनने जा रहे हों. हे प्रभु, इतने छोटे-छोटे ये जीवन, जब फुदकते हैं तो कितने प्यारे लगते हैं, पर भीतर कितने औजार ठूंस दिए तूने. ग्रीवा से लेकर पुच्छ दण्ड तक जितनी हड्डी उतने नाम. छोड़ एक को भी नहीं सकते, पीछे छिपे नंबर जो दिखते हैं. उस अनंत-अथाह कोर्स से निबटने का एकमात्र तरीक़ा था- ‘लाश उठा लो’.

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फॉर्मलीन में डूबे अपने ‘स्पेसीमेन फ्रॉग’ की अकड़ी हुई लाश चुराकर शैली चुपचाप घर ले आती. धागों से बारीक नसों-नाड़ियों को तसल्ली से देखने-समझने का इसके अलावा और कोई उपाय था भी नहीं उसके पास. एक दिन घर लौटते हुए हाथों में समोसा और बस्ता थामे भागते-भागते बस पकड़ने के प्रयास में शैली की चोरी पकड़ी गई थी.
“शैली… आप ही हैं ना?” भीड़ में से किसी ने उसे पुकारा था.
“ये आइटम आपका है?” शैली ने अपना बैग चेक किया. वाकई उसका आइटम मिसिंग था. चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ अजीब से भाव लिए वो खड़ा था एकदम सामने. आस-पास बैठे लोग घृणा का भाव लिए दूर खिसक लिए सिवाय उसके. अपना अकड़ा हुआ फ्रॉग लेते हुए शैली मुश्किल से स़िर्फ ‘थैंक्स’ कह पाई थी.
“पहले आप नाश्ता कर लें.” शैली का बैग हाथ में पकड़े हुए वह साथ वाली सीट पर बैठ गया था. शैली कॉलेज के सामने से बस पकड़ती और वो कहीं पीछे से आता था. “पर उसे मेरा नाम कैसे पता…?”
“आप सोच रही होंगी कि आपका नाम मुझे कैसे पता, है न?” शैली और हैरान, पहले तो शर्मिन्दा किया और अब अचंभित कर रहा है.
“फ्रॉग पर लिखा था, अब शैली किसी मेंढक का नाम तो नहीं हो सकता न?”
“ओह.” मूढ़मति-सी समोसा खाते हुए उस बन्दे को ताकती रह गई थी वह.
“क्या बायोलॉजी के सारे विद्यार्थी एक-एक जीव के हत्यारे होते हैं?”
“एक ही क्यों? जाने कितने जीव-कीट-पतंगे, केंचुए…” शैली ने हंसते हुए जवाब दिया.
फिर तो रोज़ मिलने का सिलसिला शुरू हो गया. वह रोज़ शैली के लिए सीट रोके रखता. उसकी जिज्ञासाएं इतनी ज़्यादा होतीं कि लगभग सारे समय अंतहीन प्रश्‍नों का भिंडी बाज़ार लिए वहीं डटा रहता और शैली चुप. वह कौन है, क्या करता है, कहां से आता है, कहां जाता है, जब तक शैली के कुछ पूछने की बारी आती, वह उतर चुका होता.
“जीव-जन्तु, वनस्पति इन सबका इतना वृहत् मान… इस ज्ञान को कहां जाकर सद्गति मिलेगी?” निसंदेह बन्दे की वाकपटुता और सेन्स ऑफ़ ह्यूमर शैली को प्रभावित करता, पर इस प्रश्‍न ने अभिमानी, प्रतिभाशाली शैली के अहम् को ललकारा था.
“होगा क्या… अपना ज्ञान लिए कुएं में कूदूं या पेड़ पर लटकूं, तुमसे मतलब?” उसका खीझा हुआ जवाब था.
“ज्ञान चाहे जैसा हो, कभी व्यर्थ नहीं जाता.”
“ये मगजमारी, मेरे माता-पिता की तपस्या क्या यूं ही व्यर्थ चली जाएगी?”
“नहीं-नहीं, व्यर्थ क्यों जाएगी.”
शैली के टेढ़े मुंह की ओर देखता वह बोल पड़ा, “बच्चों को पढ़ाने के काम आएगी…है न?” कहकर वह सदा की भांति मुस्कुराता हुआ अपने स्टॉप पर उतर गया… और ये वाक्य शैली को तीर से जा लगे थे. सांप और स्त्री पलटवार करने का मौक़ा कभी नहीं चूकते. इसका सटीक और मुंहतोड़ जवाब सोचे वह कई दिनों तक उसे ढूंढ़ती रही, पर वह अजनबी फिर कभी नज़र नहीं आया.

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पंद्रह साल पुरानी वो फांस आज भी उतनी ही गहरी चुभी थी जितनी तब. पर क्या फ़र्क़ पड़ता है, शैली ने सोचा, ‘जो बातें किसी समय में उसके लिए जीने-मरने का सबब हुआ करती थीं, आज औचित्यहीन, आई-गई-सी लगती हैं. बदलते समय के साथ स्त्री के जीवन की प्रासंगिकता और प्राथमिकता भी बदलती चली जाती है. तभी तो न वह कुएं में कूदी, न ही पेड़ पर लटकी. एम.एससी. जीव विज्ञान की डिग्री पर पंद्रह वर्षों की धूल लिए गृहस्थी की चारदीवारी में ‘गोल-गोल रानी, इत्ता-इत्ता पानी’ करती हुई आज भी वह कभी-कभी अनमना जाती है. ऐसा नहीं है कि गृहस्थी की चकरघिन्नी में कस कर शैली नाख़ुश है, वह इस मुग़ालते में भी नहीं रहती कि कलफ़ लगी साड़ी वाली स्त्री ही सर्वसुख संपन्न है. पति-बच्चों, इस घर को उसकी ज़रूरत है, वह इस घर की धुरी है और इन सबके बगैर वह स्वयं अधूरी है… लेकिन ये तमाम बातें बार-बार अपने आपको समझाने की ज़रूरत शैली को क्यों पड़ती है? क्यों वह अपने आहलाद, अपनी परिपूर्णता और अपने ‘मैं’ के बीच किसी पुल का निर्माण आज तक नहीं पर पाई?
शाम गहराने के साथ शैली की ऊब व थकान और बढ़ गई. पर आज कबीर थके हुए बिल्कुल नहीं थे. “कंपनी के काम से कोई बंदा आया है, मैंने कल चाय पर बुलाया है… जनाब आप ही के शहर से हैं.”
शैली को बहुत बुरा लगा, “तीन लाख की आबादी वाले मेरे शहर से ऐरा-गैरा, नत्थू-खैरा कोई भी आए, आप उसे न्योत लेंगे?” शैली भनभनाकर उठते हुए बोली.
अगले दिन शाम मिस्टर बेनाम मायकेवाले को लेकर कबीर हाज़िर थे. काम-धन्धे की बातों में दोनों मशगूल थे. चाय का हल्का-फुल्का जो भी इंतजाम शैली ने किया था, मेज़ पर रख एक औपचारिक अभिवादन करते हुए वह जाने को मुड़ी ही थी कि आगन्तुक की चिरपरिचित आवाज़ ने उसे चौंका दिया, “कैसी हैं शैलीजी…?” जड़ बनी वह बस इतना ही कह पाई “आप?”
हे भगवान, कल ही तो यह मेरे ख़यालों में आया था, आज साक्षात सामने खड़ा है, ये आदमी है या प्रेत? पंद्रह वर्षों बाद उसे यूं देखकर आतंकित हो उठी शैली कि कहीं वह फिर अपने प्रश्‍नपत्र का सबसे मुश्किल यक्ष-प्रश्‍न, जो आज भी उसके सामने मुंह बाए खड़ा है, लेकर खड़ा न हो जाए. पर आश्‍चर्य… उसने कुछ भी नहीं पूछा.
“देखा…” अति उत्साह से कबीर उछल पड़े, “मैंने कहा था न, तुम इन्हें ज़रूर जानती होगी.” पर शैली कहां जानती थी उसे? परिचय तो दूर, वह तो बन्दे का नाम तक नहीं जानती. मूक प्रस्तर बनी वह चुपचाप सामने बैठी रही कि जाने किस बात को बताने में क्या का क्या अर्थ निकल आए? शिष्टतावश कबीर उसे अपने व्यवसाय, अपने घर-बच्चों की बातों में व्यस्त किए हुए थे, परन्तु उसकी उचाट दृष्टि कहीं बहुत दूर कुछ तलाश रही थी.
स्त्रियों की रचना करते समय ईश्‍वर उसे अद्भुत अंतर्दृष्टि भी देता है, जो पुरुषों से अलग और गहरी होती है. शैली ने देखा, अब वह वैसा नहीं रहा जैसा पहले था, उल्लास से भरा, हाजिर जवाब, उन्मुक्त.
“एक बच्ची है, बोर्डिंग स्कूल में रहती है. पत्नी दूसरे शहर में प्राध्यापिका हैं और मैं आज भी अकेला रहता हूं, इन्हीं के शहर में…” शैली की ओर इशारा करता हुआ हल्का-सा मुस्कुराया था वह.
“पत्नी का कहना है कि इतनी पढ़ाई, मेरे माता-पिता की तपस्या घर बैठकर यूं ही व्यर्थ जाने दूं?” बिना अर्धविराम, पूर्णविराम बदले एकदम हू-ब-हू उसी वाक्यांश को उसने दोहराया. पर इस बार उसके भाषाई संकेतों का लक्ष्य शैली को आहत करना नहीं था. उसके चेहरे के आते-जाते भावों को देखकर शैली सोचने लगी, कई बार हम अपनी सफलता को किन्हीं भौतिक सुविधाओं और आर्थिक स्वावलंबन के दायरे में देखने की आदत बना लेते हैं, जबकि प्रगति और प्रसन्नता के बीच की वास्तविक दूरी हमारी दृष्टि ही होती है, जो इन दोनों सिरों को जोड़ सकने में समर्थ हो. “शैली, ये जा रहे हैं?” कबीर के हिलाने पर वह अपने आप में लौटी.
थके क़दमों से जाते हुए उसने दोनों को न्यौता दिया, “कभी अपने शहर आएं, तो हमारे मकान पर आइएगा… हम तीन प्राणी तीन कोनों में रहते हैं, मैं अकेला ही रहता हूं, इसलिए उसे घर तो नहीं कह सकता, फिर भी मुझे अच्छा लगेगा.”
“शैलीजी, मुझे कुछ याद आ रहा है…” दरवाज़े से बाहर निकलते हुए उसने कहा, “आपने यही कहा था न कि शिक्षा कभी व्यर्थ नहीं जाती… सही कहा था. आप अकेली दोनों बच्चों को शिक्षित कर रही हैं. हम दो शिक्षित माता-पिता मिलकर अपनी एक बच्ची के लिए कुछ भी नहीं कर पाए. ज्ञान का जाया होना सच्चे अर्थों में इसी को कहते हैं.”

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उसे दूर नज़रों से ओझल होता देख शैली सोचने लगी कि जैसे मृग अपनी नाभि में धारण किए कस्तूरी को ताउम्र ढूंढ़ता यहां-वहां भटकता रहता है, ठीक वैसे ही शैली भी अपने होने न होने के औचित्य में अपने आपको खोज रही थी. पंद्रह वर्ष पहले उसकी कही एक छोटी-सी अर्थहीन बात, जो शैली की सोच में फांस बन चुभती रही, उसका अधूरा व्यक्तित्व और उसके ‘मैं’ को वह स्वयं आकर नई चेतना और दिशा दे गया था. जाते-जाते उसके मन की कस्तूरी से उसका परिचय करानेवाला ‘वो’ उसके लिए तब भी अजनबी था, आज भी अजनबी है.

       

पूनम मिश्रा

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