कहानी- अंतिम विदाई 1 (Story Series- Antim Vidai 1)
मुझमें इतना साहस नहीं था अपनों से लड़ने का. अपनी इच्छाओं का दमन करना ही एक मात्र राह बची थी.और एक दिन कोर्स भी समाप्त हो गया. इस बीच कैंपस प्लेसमेंट में हम में से अधिकांश की नौकरी लग चुकी थी. घर जाने के दिन आ गए. मंदिरा जाने लगी, तो मैं उससे मिलने उसके कमरे में गया. मेरा हाथ पकड़कर बोली, “तुम बहुत अच्छे हो कपिल. ऐसे ही बने रहना.” मुझे एक दिन बाद जाना था. मैं अपने कमरे में आकर अपना सामान समेटने लगा. अटैची में सब कुछ डाल लेने के बाद भी ऐसा लग रहा था, मानो बहुत कुछ पीछे छूटा जा रहा है.
कॉलेज शुरू हुए एक सप्ताह बीत चुका था. यूं तो बाहर लगे बोर्ड के अनुसार, यह ‘स्कूल ऑफ मैनेजमेंट’ कहलाता था, पर था शहर का मशहूर, नवनिर्मित कॉलेज ही. शहर के भीतर बसा हुआ एक अलग शहर. लंबा-चौड़ा परिसर, बगीचे, लड़के-लड़कियों के अलग-अलग हॉस्टल और समारोह इत्यादि के लिए एक लंबा-चौड़ा मैदान. यहीं पर आज सुबह से चहल-पहल है. द्वितीय वर्ष के छात्र आज फ्रेशर्स को पार्टी दे रहे हैं. मैदान के बीचोंबीच ‘कैंप फायर’ का इंतज़ाम किया जा रहा था. आज नए छात्र अपना परिचय देंगे और कुछ अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन भी करेंगे. असली मुद्दा तो एक-दूसरे को जानने-समझने का था.
कैंप फायर के दौरान मेरी नज़र एक लड़की पर कई बार अटकी. इस नए शहर में यह चेहरा कुछ परिचित-सा क्यों लग रहा है? परिचय देते समय उसने अपना नाम ‘मंदिरा’ बताया- ‘मंदिरा बैनर्जी’, लेकिन उससे भी गुत्थी नहीं सुलझी. इस नाम की किसी लड़की को मैं नहीं जानता था और न ही कोई बैनर्जी परिचितों में थे. उसने बहुत प्यारा एक मधुर गीत सुनाया. कैसा तो सम्मोहन था उस आवाज़ में. बंगालियों के गले में विधाता जन्म से ही मधुर कंठ फिट कर देता है. मैं बात करने के लिए आगे बढ़ा. अच्छा अवसर था उसके गले की तारीफ़ करने का, परंतु उसे अनेक लोगों से घिरा देख यूं ही लौट आया.
वह भी मुझे पहचानने का प्रयत्न कर रही थी शायद. एक दो बार मैंने उसे अपनी ओर ध्यान से देखते पाया- कौतूहल भरी नज़र से. तभी उसने राह में पड़ा बैग उठाकर एक किनारे किया और मेरे ज़ेहन में रेलवे स्टेशन पर बैग उठाए खड़ी लड़की का चित्र कौंध गया.
उसी सप्ताह की बात है. मैं मेस में बैठा था. अगली क्लास के प्रोफेसर के छुट्टी पर होने के कारण इत्मिनान से बैठा था, जब मंदिरा भीतर आई और हॉल खाली होने के बावजूद मेरे पास आकर बैठने की इजाज़त मांगी. बात शुरू करते हुए उसने कहा, “आप कहां से आए हैं? चेहरा कुछ परिचित-सा लग रहा है.” जब मैंने उसे बताया कि हम एक ही ट्रेन से आए हैं और शायद एक ही कोच से और हमारी मुलाक़ात स्टेशन पर हुई थी, तो उसके चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई, मानो किसी समस्या का हल पाकर चैन आ गया हो.
यूं हुई हमारी दोस्ती की शुरुआत. मैं इंजीनियरिंग करके एमबीए करने आया था और वह अर्थशास्त्र में ऑनर्स करके आई थी. उसे मौजमस्ती पसंद थी, जीवन से भरपूर थी वह और मैं चुप्पा होने के बावजूद उसके इस जीवन दर्शन से प्रभावित था. इसी को विपरीत का आकर्षण कहते हैं शायद. हमारी मुलाक़ातें लंबी होने लगी थीं और हमारी बातें घनिष्ठ. कोर्स संबंधी समस्याओं की बात करते-करते हम निजी बातें भी करने लगे थे.
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उससे हर रोज़ मिलना मेरी आदत में शामिल हो गया. वह एक दिन भी न दिखे, तो दिन अधूरा लगता. मैं उसे चाहने लगा था, टूटकर चाहने लगा था, पर अपने मन की बात व्यक्त कैसे करता? मैं एक जैन परिवार से, हमारे घर तो प्याज़-लहसुन भी नहीं आता था, केक भी आता था, तो बिना अंडेवाला. हमारा संयुक्त परिवार था. दादा-दादी तो साथ ही रहते थे, ऊपर-नीचे, ताऊ-चाचा का भी घर था. घर भी यह देखकर ख़रीदा गया था कि हमारे पड़ोसी के घर मांसाहारी भोजन तो नहीं पकता.
और मंदिरा को तो बिना मछली के खाना ही न भाता था. मुझमें इतना साहस नहीं था अपनों से लड़ने का. अपनी इच्छाओं का दमन करना ही एक मात्र राह बची थी.
और एक दिन कोर्स भी समाप्त हो गया. इस बीच कैंपस प्लेसमेंट में हम में से अधिकांश की नौकरी लग चुकी थी. घर जाने के दिन आ गए. मंदिरा जाने लगी, तो मैं उससे मिलने उसके कमरे में गया. मेरा हाथ पकड़कर बोली, “तुम बहुत अच्छे हो कपिल. ऐसे ही बने रहना.” मुझे एक दिन बाद जाना था. मैं अपने कमरे में आकर अपना सामान समेटने लगा. अटैची में सब कुछ डाल लेने के बाद भी ऐसा लग रहा था, मानो बहुत कुछ पीछे छूटा जा रहा है.
समारोहवाला वह स्थान, जहां उसे पहली बार नोटिस किया था, लाइब्रेरी की वह मेज़, जहां बैठकर वह पढ़ा करती थी, क्योंकि पासवाली खिड़की से अच्छी रोशनी आती थी. मेस की वह कोनेवाली सीट जहां हमने अनेक बार एक साथ बैठ भोजन किया था. वह सब मेरी नज़रों से गुम हो जानेवाले थे. इन सब को बांधकर कैसे संग ले जाऊं?
कमाल है! घर आकर जब सामान निकाला तो पता चला, ढेर सारी यादें स्वयं ही संग चली आई हैं.
उषा वधवा