मर्द को कभी दर्द नहीं होता
- हमारे ज़ेहन में एक मर्द की तस्वीर यही होती है कि वो ङ्गसुपरमैनफ टाइप का स्ट्रॉन्ग-सा बंदा होता है. - उसे न तो शारीरिक चोट लगने पर और न ही भावनात्मक रूप से आहत होने पर दर्द का एहसास होता है, क्योंकि असली मर्द को कभी दर्द नहीं होता. - जबकि सच्चाई तो यही है कि चाहे स्त्री हो या पुरुष, दर्द सभी को होता है. - स्ट्रॉन्ग होने का यह क़तई अर्थ नहीं कि सामनेवाले को कभी कोई तकलीफ़ होती ही नहीं. पुरुष भी इंसान हैं और उनमें भी इंसानी भावनाएं हैं, दर्द हैं, दुख हैं, ख़ुशियां हैं... हमें इस सोच से उबरना होगा कि मर्द को दर्द नहीं होता. ये भी पढें: मोटापा है सेक्स लाइफ का दुश्मनरोना तो लड़कियों का काम है
- हमारा सामाजिक ढांचा ही ऐसा है कि हम पुरुषों को इस रूप में स्वीकार ही नहीं कर पाते. - बचपन से ही उन्हें यह सिखाया जाता है कि रोना-धोना लड़कियों व कमज़ोरों का काम है, तुम लड़के हो, मज़बूत बनो. - ऐसे में बचपन से ही लड़कों की मानसिकता यही बनती जाती है कि अगर मैं किसी के सामने रोया, तो मुझे कमज़ोर समझा जाएगा. मेरा मज़ाक बनाया जाएगा. - यही वजह है कि अधिकतर पुरुष अपने दुख, अपनी तकली़फें शेयर नहीं करते. वो अपने दर्द मन में ही दबाकर रखते हैं, जिस वजह से उन्हें हृदय संबंधी बीमारियों का भी ख़तरा अधिक होता है.भावुक होना कमज़ोर पुरुषत्व को दर्शाता है
- भावुकता या अधिक संवेदनशीलता स्त्रियों के गुण हैं, पुरुषों में यदि ये बातें आ जाएं, तो इन्हें अवगुण माना जाता है. - चाहे कितनी भी कठिन परिस्थितियां हों, पुरुष न तो भावनाओं में बहने का हक़ रखते हैं और न ही अधिक संवेदनशीलता उनके लिए है. - यदि हम ख़ुद भी इस तरह के संवेदनशील पुरुषों के संपर्क में आते हैं, तो हमें यही लगता है कि कैसा लड़का है, जो इतना इमोशनल या सेंसिटिव है... - जबकि सच तो यह है कि पुरुष भी बेहद भावुक व संवेदनशील होते हैं, लेकिन वो अपनी भावनाएं व्यक्त नहीं कर पाते, क्योंकि हमारा समाज, हमारी पारिवारिक परवरिश उन्हें ऐसा करने से रोकती है. - ये तमाम दबी भावनाएं उन्हें शारीरिक व मानसिक रूप से भीतर ही भीतर कमज़ोर बनाने लगती हैं और हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़ या फिर हार्ट डिसीज़ की गिरफ़्त में आने की आशंकाओं को बढ़ाती हैं.शारीरिक रूप से स्त्रियों से मज़बूत होना ज़रूरी है, वरना तुम मर्द ही नहीं हो
- हर स्त्री व पुरुष की शारीरिक क्षमता अलग होती है, यह ज़रूरी नहीं कि हर पुरुष किसी फिल्मी हीरो की तरह मज़बूत क़द-काठी का हो. - पुरुषों से यह अपेक्षा की जाती है कि वो जल्दी नहीं थक सकते, उन्हें अपने परिवार का रक्षा कवच बनना होता है, तो ज़ाहिर है उनमें लड़ने की क्षमता होनी चाहिए. - एक ओर तो हम स्त्री-पुरुष की बराबरी की बात करते हैं और दूसरी तरफ़ उन्हें अपना व अपने परिवार का रक्षा कवच बना देते हैं. - परिवार में सभी सदस्यों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वो एक-दूसरे की रक्षा भी करें और मुसीबत के व़क्त एक-दूसरे का संबल व सहारा भी बनें. इसमें स्त्री-पुरुष की बात ही नहीं आती. ये भी पढें: रखें सेक्सुअल हाइजीन का ख़्यालरिश्तों में दरार आई है, तो पुरुष ही ज़िम्मेदार होगा
- अगर कहीं कोई रिश्ता टूटता है, तो हम आंख बंद करके पुरुषों पर दोषारोपण कर देते हैं, क्योंकि हमें लगता है कि महिलाएं तो रिश्तों को पूरी ईमानदारी से निभाती हैं और पुरुष अक्सर बेईमानी करते हैं. - लेकिन हर मामले में परिस्थितियां अलग होती हैं. कई बार स्त्रियां भी ज़िम्मेदार होती हैं और उनकी ग़लतियों की वजह से भी रिश्ते व परिवार टूटते हैं. - लेकिन अगर कोई स्त्री रो-धोकर अपने ससुराल व पति पर आरोप लगा दे, तो उसे समाज के साथ-साथ प्रशासन की भी हमदर्दी मिल जाती है और हम सब आंख मूंदकर पुरुष को ही दोषी करार देते हैं. - बेहतर होगा कि हम निष्पक्ष होकर हर मुद्दे को देखें और समझें. पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर अपनी राय कायम न करें. र्ीं सभी पक्षों को देख व परखकर ही अपनी कोई राय बनाएं. - पुरुष ही दोषी होगा इस मानसिकता के साथ किसी भी मुद्दे को समझने का प्रयास न करें.बाहर का काम (फायनेंस, जमीन-जायदाद संबंधी) तो स़िर्फ पुरुष ही करते हैं
- कामकाजी महिलाएं भी अक्सर फायनेंस व ज़मीन-जायदाद से जुड़े काम के लिए पुरुषों पर ही निर्भर होती हैं. - जिस तरह यह मान लिया जाता है कि घर के काम की ज़िम्मेदारी तो स़िर्फ महिलाओं की ही होती है, उसी तरह यह भी मान लिया जाता है कि बाहर के काम पुरुषों को ही करने चाहिए. - चाहे बैंक का काम हो या फिर इंश्योरेंस संबंधी कार्य, पुरुषों ने यदि नहीं किए, तो वो ग़ैरज़िम्मेदार माने जाएंगे. - जबकि होना यही चाहिए कि सारे काम आपस में मिल-बांटकर करने चाहिए. चाहे घर के काम हों या बाहर के सबकी ज़िम्मेदारियां बिना लिंग भेद के तय करनी ज़रूरी है. ये भी पढें: सेक्स लाइफ को बेहतर बनाने के ट्रिक्सपुरुष होकर घर का काम करता है, शर्म की बात है
- यदि पुरुष घर के कामों में मदद करते हैं, तो उन्हें पत्नी का ग़ुुलाम या फिर पत्नी से दबकर-डरकर रहनेवाला माना जाता है. - उन्हें इस बात के लिए बार-बार टोका जाता है, यह आभास दिलाया जाता है कि ये काम तुम्हारे हैं ही नहीं. तुम तो मर्द हो, पत्नी को तुमसे दबकर रहना चाहिए, तुम घर के काम में उसकी मदद करते हो, तो ज़रूर तुम में कोई कमी होगी या फिर तुम्हारी कोई कमज़ोरी तुम्हारी पत्नी के हाथ लग गई होगी, जिसका वो फ़ायदा उठा रही है. - भले ही कोई पुरुष अपने घर के काम में अपनी मम्मी-बहन या पत्नी की मदद दिल से करना चाहता हो, लेकिन उसे यह महसूस करवाया जाता है कि वो स्त्रियोंवाले काम कर रहा है, जो उसके पुरुषत्व के ख़िलाफ़ है. - बेहतर होगा कि हम अपनी मानसिकता बदलें. लिंग भेद से ऊपर उठकर हर काम को देखें, ताकि किसी को भी मात्र स्त्री या पुरुष होने का फ़ायदा या नुक़सान न हो.- गीता शर्मा
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